केवल सच्चे-अच्छे पत्रकारों को ही ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ की हार्दिक बधाई

मुनीर अहमद मोमिन

भिवंडी। बिना लाग लपेट के सर्व प्रथम आज हिंदी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर केवल उन्हीं पत्रकारों को बधाई जो सच्ची, अच्छी और ईमानदारी भरी जनसरोकारी पत्रकारिता कर रहे हैं। लगभग दो शताब्दी पूर्व ब्रिटिश कालीन भारत में जब तत्कालीन हिन्दुस्तान में दूर दूर तक मात्र अंग्रेजी, फ़ारसी, उर्दू एवं बांग्ला भाषा में अखबार छपते थे, तब देश की राजधानी “कलकत्ता” में “कानपुर” के रहने वाले वकील पण्डित जुगल किशोर शुक्ल 30 मई 1826 में प्रथम हिन्दी समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड (यानि उगता सूरज) का प्रकाशन आरम्भ किया था। तबसे इस समाचार पत्र के स्थापना दिवस को ही हर साल ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। एक समय था जब एक पत्रकार की कलम में वो ताक़त थी कि उसकी कलम से लिखा गया एक-एक शब्द राजनेताओं व अधिकारियों की कुर्सी को हिला देता था। पत्रकारिता ने हमारे देश की आज़ादी में अहम् भूमिका निभाई। देश जब गुलाम था तब अंग्रेजी हुकूमत के पांव उखाड़ने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से अनेक समाचार पत्र, पत्रिकाओं का संपादन शुरू हुआ था। समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने देश को जोड़ने व एकजुट करने अहम भूमिका निभाई थी।

यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि विगत कुछ बरसों से मीडिया पर कई तरह के आरोप लग रहे हैं। फेक मीडिया, गोदी मीडिया और एंटी नेशनल मीडिया आदि नाम पत्रकारिता को दिए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि मीडिया संस्थान अपने निजी स्वार्थों के लिए वे सब हथकंडे इस्तेमाल कर रहे हैं, जिनसे लोकहित लाभहित की बलि चढ़ गया है। वैसे तो ज्यादातर आरोप राजनीति से प्रेरित हैं, पर कुछ ऐसे दमदार वाकए हैं, जिनकी वजह से आत्मचिंतन की जरूरत महसूस की जा रही है। वास्तव में मीडिया संस्थानों, खासकर न्यूज टेलीविजन, को लेकर यह बात आम चर्चा में है कि वे खबरों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और अपनी निजी पसंद और नापसंद या किसी कारोबारी स्वार्थ की वजह से खबरों को तोड़-मरोड़ कर परोस रहे हैं। स्वतंत्र पत्रकारिता लगभग समाप्त हो गई है। अखबारों के दफ्तर मीडिया हाउस में परिवर्तित हो गए हैं और जैसा कि कोई भी कारोबारी संस्था करती है, खबरों का बाजारीकरण होता गया है। जहां एक ओर मीडिया संस्थान दिन दोगुनी रात चौगुनी कारोबारी तरक्की करते गए हैं, वहीं दूसरी ओर इसी अनुपात में पत्रकार और पत्रकारिता की विश्वसनीयता पाताल में धंसती चली गई है। आज कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि पत्रकार निष्पक्ष और विश्वसनीय हो सकता है। वैसे सच यह है कि ज्यादातर पत्रकार अपना काम प्रोफेशनल तरीके से करते हैं। वे आज भी तटस्थ हैं, पर उनकी पत्रकारिता कॉरपोरेट जाल में फंस गई है। एक तरह से वे तथाकथित मीडिया हाउसों के बंधक बन गए हैं और अपनी रोजी-रोटी के लिए उनके मोहताज हो गए हैं। ऐसी स्थिति में जब नौकरी जाने का खतरा हमेशा बना रहता है, यह अपेक्षा करना कि वे कारोबारी हितों के खिलाफ और पत्रकारीय मूल्यों के पक्ष में आवाज उठाएंगे, पूरी तरह गलत है। वे तो अब सिर्फ नौकरी करने आते हैं, क्योंकि पत्रकारिता उनसे मीडिया हाउसों ने लूट ली है। पत्रकारिता और पत्रकार को पुन: स्थापित करने के लिए हमें वे उपाय तलाशने ही होंगे।

कुकुरमुत्ते की तरह चहुं उगते जा रहे हैं बोगस पत्रकार

दूसरी ओर ये सनातन सत्य भी है कि आज जिस तरह से समाचार पत्र-पत्रिकाओं की संख्या बढ़ रही हैं। उसी तेजी से पत्रकारों की संख्या में भी बढ़ रही है। लेकिन इन सबके बीच, कुछ ऐसे लोग भी पत्रकारिता से जुड़ गए है। जिनके कारण पत्रकारिता पर सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं। आज के जमाने में कुछ युवाओं ने पत्रकारिता को एक तरह का शौक समझ लिया है। वो इसी के चलते पत्रकारिता करते हैं। जबकि पत्रकारिता एक ऐसा कार्य है जिसे न तो हर कोई कर सकता है और न ही ये हर किसी के बूते की बात है। पत्रकारिता हर दौर में एक चुनौती रही है और आज भले ही मीडिया क्रांति का दौर हो, लेकिन पत्रकारिता आज भी एक चुनौती है। आज ऐसे पत्रकारों की भी लंबी चौडी कतार है जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक भी कोई लेना देना नही। जिन्होंने पत्रकारिता का एक अक्षर तक नही पढ़ा वे पत्रकार बने घूमते हैं। जिससे पत्रकारिता की छवि धूमिल हो रही है। लोगों का भरोसा पत्रकारों पर से उठने या फिर कम होने लगा है। अब आये दिन समाचार पत्रों में खबरें छपती है। फलां पत्रकार किसी को ब्लैकमेल कर रहा था। उसके खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज हुआ है। ऐसे ही लोग जनता में सच्चे पत्रकारों की छवि को धूमिल कर रहे हैं।

लेकिन आज पत्रकार बनने के लिये गुंडे, निरक्षर, आपराधिक मानसिकता के व्यक्ति अपने कारोबार को संरक्षण देने के लिए पत्रकारिता से जुड़ रहे हैं। अपनी धाक जमाने व गाड़ी पर प्रेस लिखाने के अलावा इन्हें पत्रकारिता या किसी से कुछ लेना देना नहीं होता। क्योंकि सिर्फ प्रेस ही काफी है। गाड़ी पर नंबर की ज़रूरत नहीं, किसी कागज़ की ज़रूरत नहीं, हेलमेट की ज़रूरत नहीं मानो सारे नियम व क़ानून इनके लिए ताक पर रखे हैं। क्योंकि सभी इनसे डरते हैं। चाहे नेता हो, अधिकारी हो, कर्मचारी हो, पुलिस हो, अस्पताल हो सभी जगह बस इनकी धाक ही धाक रहती है। इतना ही नहीं अवैध कारोबारियों व अन्य भ्रष्टाचारी अधिकारियों, कर्मचारियों आदि लोगों से धन उगाही कर व हफ्ता वसूल कर अपनी जेबों को भर कर ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी जीना पसंद करते हैं। खुद भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं और भ्रष्टाचार को मिटाने का ढिंढोरा समाज के सामने पीटते हैं। मानो यही सच्चे पत्रकार हो सभी लोग इनके डर से आतंकित रहते हैं कुछ तथाकथित पत्रकार तो यहां तक हद करते हैं कि सच्चे, ईमानदार काम के लिए समर्पित अधिकारियों और कर्मचारियों को भी काम नहीं करने देते। जिससे उनका धंधा, चलता रहे और वह लोग समाज को गुमराह कर अपना कारोबार चलाते रहें। यह समाज के लिये आज नहीं तो कल घातक होगा। पत्रकार समाज को दिशा दिखाता है। समाज की अच्छाई व बुराई को समाज के सामने लाता है। जो पत्रकारिता के गिरते स्तर को बयान करता है।

टीवी और यूट्यूबिया मीडिया ने किया पत्रकारिता का कबाड़ा

जब से टीवी मीडिया और तत्पश्चात उसके बगल बच्चे यूट्यूबिया मीडिया या कहें कि सोशल मीडिया नामक ने पांव पसारने शुरु किये हैं। पत्रकारिता के सारे नियम और मानक ताक पर रख दिये गये हैं। केवल एक ही नियम रह गया है, वह है टीआरपी (television ratings points) में सबसे ऊपर रहने का। अपने आप को नंबर एक पर रखने के चाव में सत्य पीछे रह गया है। ख़बर की जांच परख कर के बाद जो पत्रकार परिपक्व होता था उसको समाज और देश में इज़्ज़त और सम्मान मिलता था। आज का पत्रकार सनसनी फैलाने वाला होना चाहिए, बाईट लेने वाला चाहिए, सत्यता जाये भाड़ में। लोगों को अब पता है कि कौन सा चैनल किस दल के पक्ष में बोल रहा है। नेताओं को भी पता है कि किस को हंसकर बाईट देनी है किस को नज़रअंदाज़ करना है। डिबेट का स्तर चैनलों पर कैसा होता है, यह सब जानते हैं। अधकचरे सत्य और आंकड़ों से सत्य सिद्ध करने की कोशिश की जाती है। झूठा कैप्शंस दिखाओ, दर्शक जुटाओ फिर भूल जाओ कि पत्रकारिता रह गई है। खेद तक प्रकट नहीं करते। पहले नेताओं को डिबेट में ध्यान से सुना जाता था अब चैनल बदल दिया जाता है। नियामक संस्था (TRAI) भी जैसे हाथ पर हाथ धरकर बैठी है। यदि कुछ आवाज़ उठाये तो आज़ादी के अधिकारों का हनन कहकर उसे चुप कराने का प्रयत्न किया जाता है। आजकल एक नया मीडिया प्रचलन में है। वह है “सोशल मीडिया”। यूट्यूब, ट्विटर, फ़ेसबुक, वाट्सएप और स्काईप आदि इंटरनेट के द्वारा समाज में पैठ बनाया जा रहा है। यू ट्यूब लाईव न्यूज़ के माध्यम से भी एक नया प्रचलन बढ़ रहा है। इन सबका उपयोग सत्यता के लिये कम झूठ फैलाने के लिये ज्यादा होता है। पुरानी फोटोज़ के साथ नयी घटना को जोड़कर घटना का स्वरूप बदल दिया जाता है। लोगों को भरमाने का काम ज्यादा हो रहा है। यहां तक कि चुनावों में भी यह निर्णायक भूमिका अदा कर रहे हैं। टेक्नालॉजी का दुरुपयोग चरम पर है। कहने का तात्पर्य यह है कि पत्रकारिता लोगों तक सत्य पहुंचाने का पवित्र कार्य है।यदि यह भी कलुषित हो गया तो लोग झूठ की दुनिया में विचरण करेंगे। आभासी दुनिया मे तो हैं ही। लोकतंत्र के इस चौथे पाये की चूलें हिल रही हैं। यदि इसे समय पर सुसंचालित नहीं किया गया तो इसकी मौत निश्चित है। सिर्फ कमाई के लिये नहीं सच्चाई के लिये कुछ जज़्बा रखो। केवल पैसे के लिये, विज्ञापनों के लिये इस पवित्र कार्य को गर्त में मत धकेलो यही सुझाव और निवेदन है।

पत्रकारिता के चीरहरण कर्ता खुद हैं पत्रकार

पत्रकारिता जैसे पवित्र कार्य में जबसे दलाल आ गये गए हैं, पत्रकारिता मुन्नी से भी ज्यादा बदनाम हो गयी है। निरक्षर-साक्षर अथवा 6-7-8 पास करके पत्रकारिता का ककहरा न जानने वाले भी दिन भर बैग लटकाये अधिकारियों और नेताओं के दरवाजों पर सौ पचास रूपये के लिये दस्तक देते रहते हैं और बाईक में तेल कहां से आयेगा इसके लिए परेशान रहते हैं। परजीवी प्रजाति के कुछ घुमक्कड़ फर्जी पत्रकार बने दिन भर हांफते रहते है। न कोई डिग्री न ही कोई शिक्षा, लेकिन बदलते परिवेश में दलालों का एक झुंड सुबह से शाम तक नेताओं के दरवाजे, पुलिस स्टेशनों, तहसील, नपा मनपा और राशन कार्यालयों आदि में बिन बुलाये मेहमान सरीखे विचरण करते कभी भी देखे जा सकते हैं। बस रोजी-रोटी बन गयी है इनकी फर्जी पत्रकारिता और इबारत की चमचागिरी करना इनका प्रमुख धंधा बन गया है। लोग बुरा-भला कहें या गालियां देते रहें। इससे इनकी मोटी खाल पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

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